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शनिवार, मार्च 13, 2010

बरसातें होती है बाढ पर,

बरसातें  होती है बाढ पर,
सूखी जमीन रोती है रात भर्।
रात लम्बी तो लम्बी सही,
सुबह वियाबान पर अब होती नही।

पपीहा-किसान-नई नवेली दुल्हन,
स्वाति की बून्द जितनी प्यास भर,
दरारो से अन्कुर की तलाश पर।
पिया मिलन का सावन आएगा नही,
सुखा रो रहा; उबलते पानी मे,
चार दाने दाल के है, है तो सही।

रोटी की महक कहा मचान पर,
कोने मे पडा बिजुका रो रहा आन्ख पर।
चिरैया इधर उड आओ, चुग जायो मुझे ही सही।
बैठी बिटिया चुप डयोढी पर,
काला बादल सपनो मे दुल्हा बनता रात भर,
भले पगडन्डीया छिप गई हो सही,
सपने हमारे अभी रीते नही।

गैया-बैल की दिखने लगी केवल हडडीया भर,
आन्खे फ़िर भी रहती उनकी आसमान पर।
क्यो बाबा, हमारी तरह कुआ रोता क्यो नही,
आन्सू से जिसके बुझा ले प्यास अपनी सही।

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

hi Nitesh, nice try.. keep the spirit high!!

Sandy ने कहा…

this one... you started in 2007.. right? when did you complete it? when I saw the 2007 post, i thought i have seen it somewhere and was trying to recall. now i remember reading it here.. in your own post!! so no need to try to complete it again..
good work...!

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