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बुधवार, मार्च 10, 2010

आक्रोश

देता है झिडकी, कभी डराता
अपनी बातों से,
उसे करने को कोई काम नहीं
बस फैलाता भय.
अपने अस्त्तित्व की अनदेखी से बुरी तरह डरा अपने
अहम् को तुष्ट कर
अट्टहासों से अन्तर्मन से उठती
भिबत्स चोखों को दबाते-दबाते थक जाता है.
सताते हुए उसकी भंगिमाएं
तब पुन्रानंद में उमडती.
सताया गया और सताने वाले के मध्य यही
निरंतर चलता .
जब तक आता नहीं मध्यस्तता करता आक्रोश.

1 टिप्पणी:

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।

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