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रविवार, अगस्त 22, 2010

पहेलिका


सन्त वचन मुखरित,
मुख मण्डल सुरचित,
वाणी सदा मधु मिश्रित,
कर्म धर्म सदा प्रगटित,
समाज कल्याण हेतु धन संग्रहित.
वायदों के बस्ते,
अनुयायियों के गुलदस्ते,
सुखमय भविष्य के रस्ते,
खादी में ही जचते.
इदम् न संतम्,
इदम् न नायकम्,
इदम् न चारणः,
इदम् न सेवकः,
इदम् नस्तु महानेवचः,
अस्तु इदम् किम्,
बूझत अस्य तम् एव सर्वोच्चः

रविवार, अगस्त 15, 2010

किसकी और कैसी आज़ादी

फिर सुबह टीवी पर दिखा १५ अगस्त.


कैलेन्डर से निकलकर घड़ी से होते हुए, लाल किले पर.

आज सारे टीवी के चैनल दिन भर एक दूसरे को चुनैती देंगे आज़ादी दिखाने के लिए.

घर के बाहर चौराहे के पर उस खम्बे पर तिरंगा लहरा दिया जायेगा,

जिस खम्बे ने परसों रात नशे में डूबी आज़ादी देखी.

लाउडस्पीकरों पर दिन भर "जरा याद करो कुर्बानी" और शाम होते "दर्दे डिस्को".

फिर देश में दिन भर आज़ादी और आज़ादी चलता रहेगा.

commonwealth खेलों के अधूरे stadiums सोचते होंगे,

कि वो भी आज़ाद होंगे, १० सालों से बनते रहने कि गुलामी से.

बेचारी किसान की बेटी अपनी शादी का सपना देख लेती अगर

इस आज़ाद देश की सूखी मिट्टी उसके पिता की नहीं लीलती.

यहाँ आज़ादी है तोड़-फोड की.

खुले आम या कभी फिर टीवी पर अपने बाजुओ को फुला फुला कर- ये

बताने की हम आज़ाद हैं.

कभी धर्म कभी प्रान्त कभी जाति, हर बात करने-कहने की आज़ादी लेकिन मुँह से नहीं.

मेरी उम्र के कई लोग अब यहाँ से भाग जाने की बात करते हैं,

उनको यहाँ आज़ादी कम लग रही या ज्यादा ? पता नहीं??

मगर दूसरे देश की गुलामी और अपने देश का आजदियाँ पर भारी पड़ने लगी हैं.

किसकी और कैसा है ये आज़ादी- पता चले तो बताएगा!!!

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

कम्युनिस्ट की फ़ुटबाल

भिनभिनाती वेनेजुला की आवाजों में होते दे दाना-दन गो़ल.
वो पुराने कम्युनिस्ट काफी अच्छा खेलते हैं, छकाई फ़ुटबाल बहुत खूब.

दूसरे वो, बम से उड़ाते रेलें, नचाते निरह मृत्यु नाच.
तोड़ते सैनिकों की घर की चूडियाँ-सपने.
ये कैसी फ़ुटबाल खेल रहे, माओ के नाम पर,
लाशों की भिनभिनाती मक्खियों की हृयविदारक आवाजों में.

ये तो कम्युनिस्ट की फ़ुटबाल नहीं!!!

बस भी करो छकाना सरदारजी-बंगाली बाबू को.
वो अपना दुखी मन मुखोटा ठीक करते रहेंगे, दुखते रहे हैं हम सब.

बुधवार, जून 02, 2010

जिंदगी या जीवन

जिंदगी या जीवन, किसने
जाने इसके ताने-बाने.
कई रंगों के धागे में बुने हैं कैसे ये तो बस ऊपरवाला जाने.

एक धागा है, बचपन का,
इसमें लड़कपन की कहानी है ,
बेफिक्री के रंगों को देखो अजब रवानी है.
बचपन की आँखों में दिखते सवाल है कितने अनजाने.
जिंदगी या जीवन...

दूजा धागा जवानी है, रंग अनोखे दिख लाएगी,
सोने सी है जिसकी सीरत हर पल सहेजी जाएगी.
सपनों और तमन्नाओं के दिखते कैसे बदलते माने,
जिंदगी या जीवन...

तीसरा धागा, बुढापा का, जो आखिर में आता है,
क्या किया – क्या न किया,
क्यों किया – क्यों न किया,
बस इसमें उलझा नज़र आता है.
धागे सारे उधड़ते जायेंगे, हो जायेंगे रंग पुराने,
जिंदगी या जीवन...

शनिवार, मई 01, 2010

भावनाएँ

मैं था मेरी भावनाएँ थी, विकल प्रवाहित,
वही सूरत आम सी अंकित सुन्दर मेरी आँखों में.
सहेजकर रखना चाहूँ हरदम.
भावनाएं उफान पर थी.
क्यों कोई समझे न इन्हें, जब समझ
जाते मेरी तरह सभी.
निभाना है नियति कहते,
निभा लिया इस प्रयास में कभी.
भावनाएं, कोमल कोपल हैं.
कोपलें मुझे-तुझे हम सबको है भाती.
पलाश की मखमली कोपलों ने जीता मेरा सुन्दर आग्रह,
जैसे आज मैंने तुझसे.
कोपलें कोपल न रहती.
मखमली सौम्या अवमंदित पल-पल .
पत्ता बन चिर स्थायी निखार लेती हैं,
जब पत्तों को होना पड़ता आंधी-पानी से हमजोल,
हो जाता तब अनदेखा किए जाने वाला,
त्रस्त टूटता पतझड़ में.
प्रेम सदाबहार बहे हर पल खिलता रहे ,
न मखमली कोपल हो,
न रुखा पत्ता पत्ता,
पतझड़ भी न हो,
भावनाएँ सिकुड़े नहीं ,
विस्तार लेती रहे.

रविवार, अप्रैल 25, 2010

जीवन



जीवन में खुशी मिलें
उसे बांटते चलो,
दुख की लॉरी को
धक्का लगाते गिराते
चलो.
बरसे जब आसमान से बूंदे तो
मन मुस्काता है
जब बूंदे आँखों से बरसती,
मन रोता-चिल्लाता है,
इस मुस्कुराने-रोने-चिल्लाने की रेल चलते चलो.
जीवन में.....
जीवन की हरियाली में पतझड़ के जब पत्ते मिले,
पत्तों के ढेर पर आग लगाओ,
उनके चारों और नाचते गाते चलो.
जीवन में ....

रविवार, अप्रैल 18, 2010

पड़ौसी



ये हवा जो बह के आती है,
तुम्हारे छत से, कुछ सौंधी, कुछ ठंडी सी,
हमारी छतों पे रौनक है भर देती.

अगर बजती जो ढोलक हमारे घर पर,
खनकती चूड़ी जिसकी थाप पर,
कानों में तुम्हारे न्यौते का संदेशा भर है भर देती.

मगर जो बागड है, वो लंबी और इतनी ऊँची,
गर छलांग मैं जो लगाऊं, बस टखनों में जख्म है भर देती.

माना की हम दो अलग झंडों के नीचे बैठे,
जिनमें भरे रंग, नारंगी-हरे-सफ़ेद-नीले,
मगर तेरी धरती भी मेरी धरती के तरह हरी होती,
तेरे नीले आसमान मेरे जैसे,
जिसकी हर शाम है नारंगी रंग भर देती.

है देखो वो उड़ के जा रहे सफ़ेद कबूतर,
न जाने किसने छोड़ें है, तेरी या मेरी तरफ से,
आ जाओ अपनी बागड की उस और हमारी तरह,
कुछ तुम कहो कुछ हम सुनाएँ,
सुना है, बातें प्यारी सी, है दिलों की खाई भर देती.

शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

अखबार उर्फ शोक पत्र

अखबार का कोना फाड़-फेंकते क्यों नहीं ?
शोक पत्र का टोना, भारी जान पड़ता कहीं?

मर-मरे-मारे गए; शोकग्रस्त हर काले अक्षर,
कौन मौन करे बहुत नहीं केवल क्षण भर.

कौन कोना फाड़े जैसे एक मृत्यु-शोकपत्र का फटा था जब,
ठहरो!!!
मृत्यु यहाँ अनकों हैं क्या कोना-कोना कर फाड दोगे अखबार सब?

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

ये समय है प्यारे

ये समय है प्यारे, इसे रखना अपने पास,
जिसने गंवाया इसे भुलाया,
उसकी जीने की क्या आस .
ये समय है सोना, इसमें न सोना,
ये समय है धाती जो यही सिखाती,
पढ़लो मुझको, गढ़ ले मुझको,
ले आत्मविश्वास .
ये समय है प्यारे इसे रखना अपने पास ...
इश्वर ने जो जीवन दिया,
उसे ढालना हमको है,
पाठ जगत् से हमने लिया,
उसे उतरना हमको है.
थकने पर भी छोड नहीं देना अनमोल प्रयास .
ये समय है, इसे रखना अपने पास ...
इस समय मार्ग पर चलते कितने जीते युद्द कई,
भारत के अमिट सपूत बने,
समय के पुजारी शिखर्पुत्र सम्राटों की सेना ही थे,
कर्म पूजते बढते जाना रुकना अंतिम श्वास.
ये समय है प्यारे, इसे रखना अपने पास
जिसने गंवाया इसे भुलाया,
उसकी जीने की क्या आस .

शनिवार, मार्च 27, 2010

रूठे देवता चले जा रहे



मैंने ये १३ अक्टूबर १९९९ को लिखा था. इस दिन स्मृतिशेष बाबा त्रिलोचन सागर विश्वविद्यालय(म.प्र.) छोड़ के हरिद्वार रहने जा रहे थे. जहाँ उन्होंने अपना अंतिम शेष जीवन व्यतीत किया. उस समय बाबा सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ के अध्यक्ष थे. मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे बाबा के पास बैठने का और उनको सुनने का अबसर मिला. ये बड़ी बिडम्बना है की ऐसे महान साहित्य पुरुष की सागर विश्वविद्यालय ने उनके बहाँ रहते उचित महत्ता नहीं समझी, मुझे इस बात को ले कर सागर विश्वविद्यालय पर आज तक तरस आता है, और शोक भी की मैं बाबा को मना नहीं सका कुछ दिन और सागर में रहने को.

******* रूठे देवता चले जा रहे  ********

रूठे देवता चले जा रहे,
सजल नयन हमें छोड़े जा रहे.
सुलभ-अमूल्य-स्नेह से वंचित करके,
शिखर सीढियाँ छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

यहाँ न अब घड़ियाल बजेंगे,
गूंजेगी यहाँ न अब चौपाई,
रसिको के न थार भरेंगे,
सिसक उठेगी मुई विदाई.
कलम हमारी नास्तिक कर के,
निपट अनाथ छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

मैं रोऊ, पुरुषोत्तम रोये, निगमजी हीडें,
अश्रु-अक्षत आंचमन करे ललित सर,
खाली कमरे , दीवारें रोएं, आम रोए बेर रोए
और रोए वो टूटी छत.
हरियाली मरुस्थल करके,
जरेंटा सा हमें छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

गीता सा सन्देश सुनाने कहाँ मिलेंगे वासुदेव सारथी,
मनाऊं कैसे अबूझा हूँ,
या प्रस्तुत स्वयं को करके त्रिलोचन को दूं भस्म आरती.
मानें  भी तो मानें कैसे,
मस्तक देने पड़ें एक-एक कर.
काहे को हमें अब छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.
 





शनिवार, मार्च 20, 2010

जरुरी चीजें


हर समय ध्यान नहीं होती जरुरी चीजें,
कभी आलस,
कभी वेपरवाही,
और कभी भुलने के कारण
खो भी जाती हैं जरुरी चीजें .
फिर शुरू होता खुद को संभालना,
फिर से सिखाना-समझाना,
अगले आलस-वेपरवाह-भुलावे
और जरुरी चीजों को
फिर खोने तक. 

मंगलवार, मार्च 16, 2010

सत्यान्वेषी

सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.
जंगल अंनत काली छाया असत्य की,
धर्म के सूरज की किरणें भ्रष्ट खगों ने कैद की,
उलटे अनीति के चमगादड़ विलग मार्ग सुझाए,
सिलवटी कपाल ले सत्य खोजता है वो मौन,
सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.

प्रतिध्वनि की आशा है, झूठी,
मेला यहाँ अशिक्षा के सियारों का,
मजबूरियों की झाडियाँ हैं ऊँची,
चुक चला भरोसा शासन के कुल्हड़ों का.
सत्य को पैसे ने न खाया हो,
न नोंची हो न्यायविदों ने उसको कोमल खाल,
इसी कोमल पदचाप छोड बढा जाता वोह मौन,
सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.

शनिवार, मार्च 13, 2010

बरसातें होती है बाढ पर,

बरसातें  होती है बाढ पर,
सूखी जमीन रोती है रात भर्।
रात लम्बी तो लम्बी सही,
सुबह वियाबान पर अब होती नही।

पपीहा-किसान-नई नवेली दुल्हन,
स्वाति की बून्द जितनी प्यास भर,
दरारो से अन्कुर की तलाश पर।
पिया मिलन का सावन आएगा नही,
सुखा रो रहा; उबलते पानी मे,
चार दाने दाल के है, है तो सही।

रोटी की महक कहा मचान पर,
कोने मे पडा बिजुका रो रहा आन्ख पर।
चिरैया इधर उड आओ, चुग जायो मुझे ही सही।
बैठी बिटिया चुप डयोढी पर,
काला बादल सपनो मे दुल्हा बनता रात भर,
भले पगडन्डीया छिप गई हो सही,
सपने हमारे अभी रीते नही।

गैया-बैल की दिखने लगी केवल हडडीया भर,
आन्खे फ़िर भी रहती उनकी आसमान पर।
क्यो बाबा, हमारी तरह कुआ रोता क्यो नही,
आन्सू से जिसके बुझा ले प्यास अपनी सही।

टेडीबीयर

फैले दो हाथ हैं, पैर चौड़े,
गुडिया का भालु, सुनो लो कुछ बोले.
पहले पा लो परिचय इसका,
फिर कर लेना इससे बात.
रुई का बना है मेरा मस्त गोल-मटोल,
कपडे एक दम राजसी, आंखे बटन से झोलम-झोल.
कहता है कि गर तुम हो सच्चे,
तो सुन लो बच्चे-कच्चे.
मेरी कोई जात नहीं,
न तो मेरी कोई सीमाएँ हैं.
नहीं कोई कौम मेरा,
न तो कोई नाजी भंगिमाएं हैं.
बस दोस्त जाता, हाथों में आ कर.
इसलिए गर कहता है, तुमसे बनना जग के प्यारे,
पहन लो मेरा नवज्ञान की टोपी जिसमें लगे भाई-चारे के तारे .
हो जाओगे सबसे बढकर,
दोंगे उन भाड मालिकों को मात.
जिनके व्योपार इंसानी चनो को फोड़ना,
और करना देश तोड़ने की बात.

बुधवार, मार्च 10, 2010

आक्रोश

देता है झिडकी, कभी डराता
अपनी बातों से,
उसे करने को कोई काम नहीं
बस फैलाता भय.
अपने अस्त्तित्व की अनदेखी से बुरी तरह डरा अपने
अहम् को तुष्ट कर
अट्टहासों से अन्तर्मन से उठती
भिबत्स चोखों को दबाते-दबाते थक जाता है.
सताते हुए उसकी भंगिमाएं
तब पुन्रानंद में उमडती.
सताया गया और सताने वाले के मध्य यही
निरंतर चलता .
जब तक आता नहीं मध्यस्तता करता आक्रोश.

रविवार, मार्च 07, 2010

--फुटबॉल—

हवा खा कर मोटी हो गयी,
मेरी सुकड़ी फुटबॉल नई.
आओ दोस्तों खेले इससे,
तुम किक्क मारो हम हेड करें;
तुम फॉरवर्ड तू डिफेन्स में;
तुम सेंटर फारवर्ड हम गोली बनें.
फुटबॉल को नाचए,
दौडें मस्ती में हमारी टोली .
गोल जब हो जाये दन्न से
मस्ती में हल्ला बोलें सब के सब.
कभी टांग में अडके कोई गिर जायेगा,
पर उठकर जो आगे खेलेगा,
वही कैप्टेन-सरदार हो जायेगा.

शनिवार, मार्च 06, 2010

-----मेरे सुख दुख---

-----मेरे सुख दुख---
मै सोचता ज्यादा हू,
इसलिए कुछ भावुक हू, या भावुक हू इसलिए सोचता हू।
भावनाए, दुख-सुख सोते नही, चाहे आन्खे बन्द भी हो।
विषय अनुराग है, सरस है विषयो की सुलभता सोचना लगा फ़िर दिन प्रति,
सुख मे कोमल तरन्गो से मन प्रफ़ुलित,
दुख के ताड से विलोडित होता।
समता के अभाव मे सुख से दुख और दुख से सुख को खोजता फ़िरता।

शुक्रवार, जनवरी 01, 2010

***** हरी क्रांति ****

पेड़ न कटे, न वाहन उगलें धुआँ यही कामना है मेरी नववर्ष में साथियों,
न कही मिसाइल गिरे न तेल का सागर बने यही सोच-शांति से आगे बढना होगा साथियों .

धरती से जंगल और पानी नदियों से खो न जाए, प्राकृत सम्पदा से हो जाए खाली हाथ,
बहरे बन कब तक जीना है, इसलिए कान खोल सुन ले ये बात.

पेड़ हमें लगाना हो होगा, वाहन कम चलाना होगा,
ओजोन को शिशु के तरह, पालने में होले से झुलाना होगा.

हो गए ओजोन छेद बड़े बड़े, तो शंकर की तीसरी आंख खोल जाएगी,
एक एसिड की बारिश कम है, प्रचंड अग्नि से पृथ्वी प्रलय में समाएगी .

सो जग लो सब सोये सारे, पृथ्वी को अब हरा-भरा करके दिखलाना है,
ग्रीन हाउस गैस, कार्बन उत्सर्जन और हरित क्रांति क्या है, सब को सिखलाना है .

रक्षाबंधन 2018