पैबन्द लगे कोट पहने,
तांगे पर पहाडिया चढ़कर.
बैरकों से निकाल नव-सांदीपनि निर्माण करते,
हर ईंट-पत्थर-चूने को पसीने से सींचते,
को नियति ने रोक कर पूछा-
“हे सरस्वती साधक, लक्ष्मी पालक.
माथे की बूंद को तर्जनी से झटक कर वह बोला-
“नहीं, मैं नालंदा का शिल्पी हूँ, पुनर्जन्म ले यहाँ आ पहुंचा हूँ.
जो भूल वहाँ की थी, यहाँ न दोहराऊंगा,
इस विश्वविद्यालय को अमरत्व-शिल्प से बनाऊंगा.
कई सदियाँ इसको छूकर गुजरेंगी,
और ये बेबाक खड़ा रहेगा.
इसके विद्यार्थी साफल्य-क्षतिज पर चमकेंगे,
जैसे चमकता शिव चंद्र-भाल है.”
नियति बोली, मैं साक्षी रहूंगी.
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