बस स्टॉप

हम रोज़ बस स्टॉप पर टकराते थे,

मुस्कुराने लगे, देख एक दूसरे को।

अब टकराते नहीं, मिलने लगे हैं जो रोज़।

बेमतलब की बातें शुरू हुई कल से,

और, आज अचानक टोकना उसका,

गोया जानती हो सालों से,

मेरी कमज़ोरियां, मेरी भूली ताकतें।

तुमने उड़ा दी राख कैसे एक फूंक से,

आग लिए उस अंगार पर काबिज़ बरसों से।

शब्दों के आटे-साग-तेल-मसाले,

थोड़ा तेल - नून उस अनजान का,

लो काव्य रसोई बनने लगी करारी फिर से।


चुप

 वो गौरैया,

मीठा सा चहचहाना जिसका।

फुदकती इधर से उधर,

गर्दन ऊपर कभी नीचे करती,

खोजती जाने क्या क्या।

कभी फुर्र से उड़ जाती,

फिर घंटो बाद आती,

लेकर अपनी चहचहाट और कुछ तिनके,

भर देती मेरे बगीचे को,

अपरिजिता, गुड़हल, गुलमोहर, गेंदे

की पंखुड़ियों से,

बिखर जाते सुरीली सरसराहट से जो।

आज बगीचा है खाली,

हवा थी सरसराहट बिना,

था कुछ नहीं खोजता कोई,

खाली खाली वियावन सा सब।

गौरैया आई, लेकिन चुप सी

बोली सूरज फिर आया,

नदी साथ लेने।

पानी का टोकरा सरकाते,

बोला मैंने, तुम चहचहाओ बस,

पाताल के सीने में,

पानी तेरे लिए,

सूरज से मैंने छुपाया है।


बस स्टॉप

हम रोज़ बस स्टॉप पर टकराते थे, मुस्कुराने लगे, देख एक दूसरे को। अब टकराते नहीं, मिलने लगे हैं जो रोज़। बेमतलब की बातें शुरू हुई कल से, और, आ...