पड़ौसी



ये हवा जो बह के आती है,
तुम्हारे छत से, कुछ सौंधी, कुछ ठंडी सी,
हमारी छतों पे रौनक है भर देती.

अगर बजती जो ढोलक हमारे घर पर,
खनकती चूड़ी जिसकी थाप पर,
कानों में तुम्हारे न्यौते का संदेशा भर है भर देती.

मगर जो बागड है, वो लंबी और इतनी ऊँची,
गर छलांग मैं जो लगाऊं, बस टखनों में जख्म है भर देती.

माना की हम दो अलग झंडों के नीचे बैठे,
जिनमें भरे रंग, नारंगी-हरे-सफ़ेद-नीले,
मगर तेरी धरती भी मेरी धरती के तरह हरी होती,
तेरे नीले आसमान मेरे जैसे,
जिसकी हर शाम है नारंगी रंग भर देती.

है देखो वो उड़ के जा रहे सफ़ेद कबूतर,
न जाने किसने छोड़ें है, तेरी या मेरी तरफ से,
आ जाओ अपनी बागड की उस और हमारी तरह,
कुछ तुम कहो कुछ हम सुनाएँ,
सुना है, बातें प्यारी सी, है दिलों की खाई भर देती.

2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Vaishu's Mann ने कहा…

👌🧡👌🧡👌🧡👌🧡👌🧡👌🧡👌

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