हम रोज़ बस स्टॉप पर टकराते थे,
मुस्कुराने लगे, देख एक दूसरे को।
अब टकराते नहीं, मिलने लगे हैं जो रोज़।
बेमतलब की बातें शुरू हुई कल से,
और, आज अचानक टोकना उसका,
गोया जानती हो सालों से,
मेरी कमज़ोरियां, मेरी भूली ताकतें।
तुमने उड़ा दी राख कैसे एक फूंक से,
आग लिए उस अंगार पर काबिज़ बरसों से।
शब्दों के आटे-साग-तेल-मसाले,
थोड़ा तेल - नून उस अनजान का,
लो काव्य रसोई बनने लगी करारी फिर से।