दया प्रेम आवेग तू अंखियाँ गीली मात होने दे,
कसकर पकड़ कृपण तू मुठियाँ ढीली मत होने दे।
जहाँ सस्त्र बल नहीं शास्त्र रोते और पछताते हैं,
ऋषियों को भी मिली सफलता तब से तब ही,
प्रहरे पर जब स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
[मुझे माफ़ करना मुंबई एक मूकदर्शक बने रहने को]
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