दया प्रेम आवेग तू अंखियाँ गीली मात होने दे,
कसकर पकड़ कृपण तू मुठियाँ ढीली मत होने दे।
जहाँ सस्त्र बल नहीं शास्त्र रोते और पछताते हैं,
ऋषियों को भी मिली सफलता तब से तब ही,
प्रहरे पर जब स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
[मुझे माफ़ करना मुंबई एक मूकदर्शक बने रहने को]
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
बस स्टॉप
हम रोज़ बस स्टॉप पर टकराते थे, मुस्कुराने लगे, देख एक दूसरे को। अब टकराते नहीं, मिलने लगे हैं जो रोज़। बेमतलब की बातें शुरू हुई कल से, और, आ...
-
अटलजी को उनके ८८वे जन्मदिवस पर बहुत बहुत शुभकामनाएँ... ईश्वर उनको दीर्घायु और सुखी एवं स्वास्थवर्धक जीवन प्रदान करें.. अटलजी की कुछ कवित...
-
कुछ दिनों से जब-जब समाचार पढ़ता हूँ, रोज सुबह दिल भर आता है. उत्तराखंड की तस्वीरें और खबरें पढ़ कर. ये क्या है ईश्वर? जिन लोगों ने तुमको...
-
मैंने ये १३ अक्टूबर १९९९ को लिखा था. इस दिन स्मृतिशेष बाबा त्रिलोचन सागर विश्वविद्यालय(म.प्र.) छोड़ के हरिद्वार रहने जा रहे थे. जहाँ उन्...