फिर सुबह टीवी पर दिखा १५ अगस्त.
कैलेन्डर से निकलकर घड़ी से होते हुए, लाल किले पर.
आज सारे टीवी के चैनल दिन भर एक दूसरे को चुनैती देंगे आज़ादी दिखाने के लिए.
घर के बाहर चौराहे के पर उस खम्बे पर तिरंगा लहरा दिया जायेगा,
जिस खम्बे ने परसों रात नशे में डूबी आज़ादी देखी.
लाउडस्पीकरों पर दिन भर "जरा याद करो कुर्बानी" और शाम होते "दर्दे डिस्को".
फिर देश में दिन भर आज़ादी और आज़ादी चलता रहेगा.
commonwealth खेलों के अधूरे stadiums सोचते होंगे,
कि वो भी आज़ाद होंगे, १० सालों से बनते रहने कि गुलामी से.
बेचारी किसान की बेटी अपनी शादी का सपना देख लेती अगर
इस आज़ाद देश की सूखी मिट्टी उसके पिता की नहीं लीलती.
यहाँ आज़ादी है तोड़-फोड की.
खुले आम या कभी फिर टीवी पर अपने बाजुओ को फुला फुला कर- ये
बताने की हम आज़ाद हैं.
कभी धर्म कभी प्रान्त कभी जाति, हर बात करने-कहने की आज़ादी लेकिन मुँह से नहीं.
मेरी उम्र के कई लोग अब यहाँ से भाग जाने की बात करते हैं,
उनको यहाँ आज़ादी कम लग रही या ज्यादा ? पता नहीं??
मगर दूसरे देश की गुलामी और अपने देश का आजदियाँ पर भारी पड़ने लगी हैं.
किसकी और कैसा है ये आज़ादी- पता चले तो बताएगा!!!