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शनिवार, मार्च 27, 2010

रूठे देवता चले जा रहे



मैंने ये १३ अक्टूबर १९९९ को लिखा था. इस दिन स्मृतिशेष बाबा त्रिलोचन सागर विश्वविद्यालय(म.प्र.) छोड़ के हरिद्वार रहने जा रहे थे. जहाँ उन्होंने अपना अंतिम शेष जीवन व्यतीत किया. उस समय बाबा सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ के अध्यक्ष थे. मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे बाबा के पास बैठने का और उनको सुनने का अबसर मिला. ये बड़ी बिडम्बना है की ऐसे महान साहित्य पुरुष की सागर विश्वविद्यालय ने उनके बहाँ रहते उचित महत्ता नहीं समझी, मुझे इस बात को ले कर सागर विश्वविद्यालय पर आज तक तरस आता है, और शोक भी की मैं बाबा को मना नहीं सका कुछ दिन और सागर में रहने को.

******* रूठे देवता चले जा रहे  ********

रूठे देवता चले जा रहे,
सजल नयन हमें छोड़े जा रहे.
सुलभ-अमूल्य-स्नेह से वंचित करके,
शिखर सीढियाँ छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

यहाँ न अब घड़ियाल बजेंगे,
गूंजेगी यहाँ न अब चौपाई,
रसिको के न थार भरेंगे,
सिसक उठेगी मुई विदाई.
कलम हमारी नास्तिक कर के,
निपट अनाथ छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

मैं रोऊ, पुरुषोत्तम रोये, निगमजी हीडें,
अश्रु-अक्षत आंचमन करे ललित सर,
खाली कमरे , दीवारें रोएं, आम रोए बेर रोए
और रोए वो टूटी छत.
हरियाली मरुस्थल करके,
जरेंटा सा हमें छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.

गीता सा सन्देश सुनाने कहाँ मिलेंगे वासुदेव सारथी,
मनाऊं कैसे अबूझा हूँ,
या प्रस्तुत स्वयं को करके त्रिलोचन को दूं भस्म आरती.
मानें  भी तो मानें कैसे,
मस्तक देने पड़ें एक-एक कर.
काहे को हमें अब छोड़े जा रहे,
रूठे देवता चले जा रहे.
 





शनिवार, मार्च 20, 2010

जरुरी चीजें


हर समय ध्यान नहीं होती जरुरी चीजें,
कभी आलस,
कभी वेपरवाही,
और कभी भुलने के कारण
खो भी जाती हैं जरुरी चीजें .
फिर शुरू होता खुद को संभालना,
फिर से सिखाना-समझाना,
अगले आलस-वेपरवाह-भुलावे
और जरुरी चीजों को
फिर खोने तक. 

मंगलवार, मार्च 16, 2010

सत्यान्वेषी

सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.
जंगल अंनत काली छाया असत्य की,
धर्म के सूरज की किरणें भ्रष्ट खगों ने कैद की,
उलटे अनीति के चमगादड़ विलग मार्ग सुझाए,
सिलवटी कपाल ले सत्य खोजता है वो मौन,
सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.

प्रतिध्वनि की आशा है, झूठी,
मेला यहाँ अशिक्षा के सियारों का,
मजबूरियों की झाडियाँ हैं ऊँची,
चुक चला भरोसा शासन के कुल्हड़ों का.
सत्य को पैसे ने न खाया हो,
न नोंची हो न्यायविदों ने उसको कोमल खाल,
इसी कोमल पदचाप छोड बढा जाता वोह मौन,
सत्य की तलाश में लिए चला लालटेन कौन.

शनिवार, मार्च 13, 2010

बरसातें होती है बाढ पर,

बरसातें  होती है बाढ पर,
सूखी जमीन रोती है रात भर्।
रात लम्बी तो लम्बी सही,
सुबह वियाबान पर अब होती नही।

पपीहा-किसान-नई नवेली दुल्हन,
स्वाति की बून्द जितनी प्यास भर,
दरारो से अन्कुर की तलाश पर।
पिया मिलन का सावन आएगा नही,
सुखा रो रहा; उबलते पानी मे,
चार दाने दाल के है, है तो सही।

रोटी की महक कहा मचान पर,
कोने मे पडा बिजुका रो रहा आन्ख पर।
चिरैया इधर उड आओ, चुग जायो मुझे ही सही।
बैठी बिटिया चुप डयोढी पर,
काला बादल सपनो मे दुल्हा बनता रात भर,
भले पगडन्डीया छिप गई हो सही,
सपने हमारे अभी रीते नही।

गैया-बैल की दिखने लगी केवल हडडीया भर,
आन्खे फ़िर भी रहती उनकी आसमान पर।
क्यो बाबा, हमारी तरह कुआ रोता क्यो नही,
आन्सू से जिसके बुझा ले प्यास अपनी सही।

टेडीबीयर

फैले दो हाथ हैं, पैर चौड़े,
गुडिया का भालु, सुनो लो कुछ बोले.
पहले पा लो परिचय इसका,
फिर कर लेना इससे बात.
रुई का बना है मेरा मस्त गोल-मटोल,
कपडे एक दम राजसी, आंखे बटन से झोलम-झोल.
कहता है कि गर तुम हो सच्चे,
तो सुन लो बच्चे-कच्चे.
मेरी कोई जात नहीं,
न तो मेरी कोई सीमाएँ हैं.
नहीं कोई कौम मेरा,
न तो कोई नाजी भंगिमाएं हैं.
बस दोस्त जाता, हाथों में आ कर.
इसलिए गर कहता है, तुमसे बनना जग के प्यारे,
पहन लो मेरा नवज्ञान की टोपी जिसमें लगे भाई-चारे के तारे .
हो जाओगे सबसे बढकर,
दोंगे उन भाड मालिकों को मात.
जिनके व्योपार इंसानी चनो को फोड़ना,
और करना देश तोड़ने की बात.

बुधवार, मार्च 10, 2010

आक्रोश

देता है झिडकी, कभी डराता
अपनी बातों से,
उसे करने को कोई काम नहीं
बस फैलाता भय.
अपने अस्त्तित्व की अनदेखी से बुरी तरह डरा अपने
अहम् को तुष्ट कर
अट्टहासों से अन्तर्मन से उठती
भिबत्स चोखों को दबाते-दबाते थक जाता है.
सताते हुए उसकी भंगिमाएं
तब पुन्रानंद में उमडती.
सताया गया और सताने वाले के मध्य यही
निरंतर चलता .
जब तक आता नहीं मध्यस्तता करता आक्रोश.

रविवार, मार्च 07, 2010

--फुटबॉल—

हवा खा कर मोटी हो गयी,
मेरी सुकड़ी फुटबॉल नई.
आओ दोस्तों खेले इससे,
तुम किक्क मारो हम हेड करें;
तुम फॉरवर्ड तू डिफेन्स में;
तुम सेंटर फारवर्ड हम गोली बनें.
फुटबॉल को नाचए,
दौडें मस्ती में हमारी टोली .
गोल जब हो जाये दन्न से
मस्ती में हल्ला बोलें सब के सब.
कभी टांग में अडके कोई गिर जायेगा,
पर उठकर जो आगे खेलेगा,
वही कैप्टेन-सरदार हो जायेगा.

शनिवार, मार्च 06, 2010

-----मेरे सुख दुख---

-----मेरे सुख दुख---
मै सोचता ज्यादा हू,
इसलिए कुछ भावुक हू, या भावुक हू इसलिए सोचता हू।
भावनाए, दुख-सुख सोते नही, चाहे आन्खे बन्द भी हो।
विषय अनुराग है, सरस है विषयो की सुलभता सोचना लगा फ़िर दिन प्रति,
सुख मे कोमल तरन्गो से मन प्रफ़ुलित,
दुख के ताड से विलोडित होता।
समता के अभाव मे सुख से दुख और दुख से सुख को खोजता फ़िरता।

रक्षाबंधन 2018